आज़ादी की लड़ाई में खुल कर कूद गए
वयोवृद्ध सम्मानीय शुक्ला जी बता रहे थे –
अंग्रेजों ने चंद्रशेखर आज़ाद जी पर ईनाम घोषित कर दिया था । हमारे गाँव से वे जा रहे थे । गाँव की काकी पहचान गई । पकड़े जाने के डर से वो व उनके लोग भागे । पर काकी ने उन्हें पकड़ लिया । आज़ाद जी उनसे छूट कर निकल गए पर उनका चाकू काकी के पास रह गया । वो अपने पास रख ली । अंग्रेजों ने बहुत कोशिश की पर उन्होंने नही दिया ।
आज़ाद जी भागकर पास के जंगल मे छिप गए । मेरी दादी भूसे रखने वाली खैंची (बड़ी डोलची) में अपने विश्वसनीय हरवाह (नौकर) से रात के अंधेरे में खाना भिजवाती थी । नौकर पहले डोलची में पयरा (पुआल) रखता था । उसके ऊपर खाना । उसके ऊपर घास रख कर ढ़क देता था । फिर अंधेरे में जंगल में जाता था । खाना खिला कर उसी तरह वापस आ जाता था ।
एक दिन किसी मुखबिर को शक हो गया । पैसों की लालच में उसने खबर अंग्रेजों तक पहुंचा दी । अंग्रेज आए । पर पकड़ नही पाए । आज़ाद जी को पहले ही अंदेशा हो गया था । वो वहां से चले गए थे ।
अंग्रेजो ने नौकर को पकड़ लिया । उसे बहुत मारा । फिर मेरे दादा दादी को पकड़े । उन्हें भी बहुत मारे । दादी को मार से चोट जादा लग गई । दस दिन बाद वो चल बसी ।
अंग्रेज उसके बाद भी हमारे परिवार को परेशान करते रहे ।
एक दिन खबर मिली कि आज़ाद जी इलाहाबाद में शहीद हो गए ।
खबर मिलते ही हमारा परिवार, खासकर हमारे पिताजी व माता जी, आज़ादी की लड़ाई में खुल कर कूद गए ।
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