मेरे पापा के जाने के बाद

मेरे पापा के जाने के बाद तीन साल ऐसे ही डिप्रेशन में रही मैं, बैराग जैसा पूरी तरह आ गया था मन में ।लगता था सब व्यर्थ है ।क्या करना है, सब बेकार ।और फिर खूब रोती थी हूक भर भर के । जीवन में जितने सुखद यादें अपने पिता के साथ रहीं मेरी उतनी मां के साथ कभी नहीं हो सकीं।

मेरे भीतर का कोई बड़ा हिस्सा टूट चुका था । मैं हर दिन खत्म होने लगी थी ।लगता था जल्दी ही मर जाऊं तो अच्छा है । इतना तो शायद उनके जीतेजी भी नहीं सोचा था मैंने कि में इतनी बिखर जाउंगी पापा के जाने के बाद ।

दर असल वह इतने मजबूत इंसान थे कि कैंसर जैसे रोग से भी वह कभी घबराए नहीं दिखे । जीवन के आखिरी दिनों तक वह अपने सब काम स्वयं करते रहे। भले भीतर भीतर वह भी विचलित होते रहे होंगे लेकिन इससे उन्होंने कभी अपनी दिनचर्या पर असर नहीं पड़ने दिया । शायद इसलिए मैं ये समझ नहीं सकी या विश्वास नहीं कर पाई कभी की वो वाकई में हम सबको छोड़ कर चले जाएंगे !!

मुझे जब जब उनकी याद आती, तो मैं अपने एक दोस्त से बात करती । शुरू हो जाती तो घंटों उन यादों को शेयर करती जो सिर्फ मेरी थीं ।

वह दोस्त अधिकतर hmmm hmmm hmmm ही करते थे । सुनते अधिक, बोलते कम । और जब कोई सुनने वाला मिल जाए तो दुख के बादल भले देर से छंटे, लेकिन छांटते जरूर है । और हमें हम ही संभाल सकते, कोई दूसरा सिर्फ सपोर्ट कर सकता है

मेरे भीतर का ग्लेशियर टूटता, पिघलता, और बहता जाता । वह कितना समझते समझाते मुझे, उसने मुझे इस दुख से काफी हद तक बाहर खींच लिया । मेरे लिए यही काफी था वह अपना कीमती वक्त निकाल कर मुझे सुन रहे हैं ।

“समय बड़ा अनमोल है जीवन उससे भी अधिक । अपने आपको समझो अपने जीवन के बारे में सोचो। ” तुम्हारे रोने से तुम्हारे पापा को सुकून नहीं मिलेगा । अपने आपको बिजी करो कहीं ।

फिर मुझे भी लगने लगा कि आखिर कोई मुझे कब तक सुनेगा, कब तक अपना कीमती समय देगा मुझे । किसे फुर्सत है इतनी कि हर वक्त आपका साथ निभाए !

#आखिर गले में उंगली डालने से प्राण नहीं निकल जाते ? ” ऐसा दुखों से घबरा कर अक्सर मां ही कहती थीं ।

धीरे धीरे मैंने अपने दुख को आत्मसात करना सीखा सोखना सीखा

सोखने से याद आया, बहुत साल पहले एक दोस्त ने कहा था मुझे कभी, ” निशा तुम पर हर बात बहुत जल्द असर करती है । इसलिए तुम पल में उदास और पल में खुश हो जाती हो । सोख्ते जैसी बनो, सोखना सीखो ।”

उस दोस्त को कहना है मुझे कि – येस में अब काफी हद तक सोख्ता बन चुकी हूं । मैं जो भी बन सकी हूं जीवन में अपने माता पिता के बाद, मुझे बनाने में मेरे दोस्तों का बहुत बड़ा साथ रहा । ये स्त्री हों या पुरुष, मुझे दोस्त बहुत प्यारे दिए ईश्वर ने ।

फिर एक वक्त ऐसा आया, मैंने स्वयं में स्वयं को ढूंढना शुरू किया और मैंने स्वयं को आर्ट से जोड़ा । चित्रकारी शुरू की । क्लासेज ज्वाइन की ।
पिछले चार सालों ने मुझे खूब तोड़ा, और खूब बनाया । एक तरह से, मेरा नवनिर्माण ।

बीज मेरे भीतर ही था, मुझे इसे सींचना था, इसे उगाना था ।

या फिर कहूं कि – पुरानी नींव पर नया मकान !

अब मैंने आर्ट का एक वर्ष का डिप्लोमा कोर्स ज्वाइन किया है । मई में प्रदर्शनी के लिए जा रही हूं ।
ईश्वर ने चाहा तो आगे का जीवन चित्रकला के, और लेखन साथ जुड़ा रहेगा । और कम से कम मरते वक्त कोई सुकून होगा । शायद यही प्रारब्ध भी हो मेरा ?

मेरे सभी प्यारे मित्रों को समर्पित ये लेख, उन सबको जिनका मुझे बनाने में सहयोग रहा है, मैं जो भी कुछ बन सकी, या बन रही हूं !

Nisha Kulshreshtha